Dying Declaration (मृत्यु पूर्व घोषणा हिंदी में)

Bhartiya Sakshya Adhniyam in Hindi

मृत्युलेख (Dying Declaration) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 26: एक व्यापक विवेचन

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में कुछ ऐसे विशेष प्रावधान हैं जो सामान्य साक्ष्य नियमों के अपवाद के रूप में कार्य करते हैं। इन्हीं में से एक है धारा 26। यह धारा उन व्यक्तियों के कथनों की साक्ष्यात्मक प्रासंगिकता से संबंधित है, जिन्हें साक्षी के रूप में पेश नहीं किया जा सकता। आइए, इस महत्वपूर्ण विधिक अवधारणा को विस्तार से समझते हैं।

धारा 26: एक सामान्य परिचय

धारा 26, साक्ष्य अधिनियम के उस सामान्य नियम का अपवाद है जो कहता है कि मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिए। इसके अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया लिखित या मौखिक कथन, जो सुसंगत तथ्यों से संबंधित हो, साक्ष्य में प्रासंगिक होगा, यदि वह व्यक्ति:

i. मर चुका है; या

ii. ढूंढे नहीं पाया जाता; या

iii. साक्ष्य देने में असमर्थ हो गया है; या

iv. उसकी उपस्थिति बिना अनुचित विलंब या खर्च के प्राप्त नहीं की जा सकती।

ऐसे कथन निम्नलिखित परिस्थितियों में प्रासंगिक होंगे:

a. जब वह मृत्यु के कारण से संबंधित हो [धारा 26(क)];

b. जब वह व्यवसाय के सामान्य क्रम में दिया गया हो [धारा 26(ख)];

c. जब वह कथन करने वाले के हित के विरुद्ध हो [धारा 26(ग)];

d. जब वह किसी सार्वजनिक अधिकार, रीति-रिवाज, या सामान्य हित के विषय में राय देता हो [धारा 26(घ)];

e. जब वह दो व्यक्तियों के बीच संबंध के अस्तित्व से संबंधित हो [धारा 26(ङ)];

f. जब वह वसीयतनामा या पारिवारिक मामलों से संबंधित दस्तावेज में किया गया हो [धारा 26(च)];

g. जब वह धारा 11(क) में वर्णित लेन-देन से संबंधित किसी दस्तावेज में निहित हो [धारा 26(छ)];

h. जब वह कई व्यक्तियों द्वारा किया गया हो और विवादित मामले से संबंधित भावनाओं को व्यक्त करता हो [धारा 26(ज)]।

इस धारा का मूल सिद्धांत यह है कि यदि किसी मामले का प्रत्यक्ष ज्ञान रखने वाला व्यक्ति उपरोक्त कारणों से अदालत में पेश नहीं हो सकता, तो उस ज्ञान को किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से अदालत तक पहुंचाया जाना चाहिए। यह 'सुनी-सुनाई बात' (Hearsay Evidence) के सामान्य निषेध का भी एक अपवाद है।

मृत्युलेख (Dying Declaration)

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में 'मृत्युलेख' को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसकी अवधारणा धारा 26(क) के अंतर्गत निहित है।

मृत्युलेख का अर्थ

धारा 26(क) के अनुसार, मृत्युलेख एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया गया कथन (मौखिक या लिखित) है, जो मर चुका है, और जो अपनी मृत्यु के कारण या उन परिस्थितियों के बारे में है जिनके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हुई। ऐसे कथन तब प्रासंगिक होते हैं जब उस व्यक्ति की मृत्यु प्रश्नगत हो। भारतीय कानून में यह महत्वपूर्ण है कि ऐसे कथन देते समय व्यक्ति की मृत्यु की अपेक्षा (Expectation of Death) होना आवश्यक नहीं है।

धारा 26(क) के आवश्यक तत्व

1. यह एक मौखिक या लिखित कथन होना चाहिए।

2. कथन मृत्यु के कारण या मृत्यु के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों के बारे में हो।

3. कथन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी हो।

4. कथन देते समय मृत्यु की आशंका होना आवश्यक नहीं है।

5. मृतक की मृत्यु का कारण प्रश्नगत हो।

6. यह दीवानी या फौजदारी किसी भी प्रक्रिया में प्रयोग किया जा सकता है।

इस प्रावधान के पीछे का सिद्धांत

मृत्युलेख को 'सुनी-सुनाई बात' के निषेध के अपवाद के रूप में **आवश्यकता (Necessity)** के सिद्धांत के आधार पर स्वीकार किया जाता है। मरने वाला व्यक्ति अपनी मृत्यु के कारण का सबसे अच्छा ज्ञाता होता है; इसलिए, आवश्यकता के कारण उसका कथन स्वीकार्य है।

R v. Woodcock मामले में अदालत ने कहा कि जब कोई व्यक्ति मृत्युशैया पर होता है और दुनिया की सारी आशाएं समाप्त हो चुकी होती हैं, तो झूठ बोलने का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाता है।

P.V. Radhakrishna v. State of Karnataka में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मृत्युलेख को स्वीकार करने का सिद्धांत लैटिन कहावत 'nemo moriturus praesumitur mentiri' (कोई भी व्यक्ति यह नहीं माना जाता कि वह मृत्यु के समय झूठ बोल रहा है) पर आधारित है।

Uka Ram v. State of Rajasthan में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आसन्न मृत्यु की भावना मनुष्य के मन में उसी प्रकार की भावना पैदा करती है जैसे किसी सदाचारी व्यक्ति के मन में शपथ लेते समय होती है और झूठ बोलने की संभावना पूरी तरह समाप्त हो जाती है।

मृत्युलेख का स्वरूप

भारतीय साक्ष्य अधिनियम मृत्युलेख के लिए कोई विशेष प्रारूप निर्धारित नहीं करता। मृतक द्वारा दिया गया कथन मौखिक या लिखित कुछ भी हो सकता है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने Queen v. Abdullah में कहा कि कथन संकेतों या इशारों जैसे संचार के पर्याप्त तरीके से भी दिया जा सकता है, बशर्ते कि संकेत सकारात्मक और निश्चित हों। Laxman v. State of Maharashtra में सुप्रीम कोर्ट ने इसी राय को दोहराया।

मृत्यु के कारण से संबंधित कथन

मृत्युलेख के स्वीकार्य होने के लिए यह आवश्यक है कि वह निम्न से संबंधित हो:

a. मृत्यु का कारण: मृतक द्वारा दिया गया कथन उसकी अपनी मृत्यु के कारण से संबंधित होना चाहिए। उदाहरण: 'A' पर हमला होता है और वह मर जाता है। मरने से पहले, वह बताता है कि B ने उस पर भाला से हमला किया। A का यह कथन स्वीकार्य है।

b. मृत्यु के लिए जिम्मेदार परिस्थितियाँ: "परिस्थितियाँ" शब्द का दायरा व्यापक है और कुछ भी जिसका मृतक की मृत्यु से निकट या दूर का नाता हो, धारा 26(क) के अंतर्गत आ सकता है।

 Pakalanarayan Swami v. Emperor में, मृतक द्वारा अपनी पत्नी से यह कहना कि उसे आरोपी के घर पैसा लेने जाना है, उसकी मृत्यु की परिस्थितियों से संबंधित माना गया और स्वीकार्य ठहराया गया।

Sharad Birdichand Sarda v. State of Maharashtra में, एक विवाहित महिला द्वारा अपने माता-पिता को लिखे गए खत, जिनमें उसने अपनी जान को खतरे की बात कही थी, उसकी मृत्यु के कुछ महीने बाद स्वीकार्य करार दिए गए। कोर्ट ने कहा कि कथन और मृत्यु की परिस्थितियों के बीच एक संबंध होना चाहिए।

मृत्युलेख का साक्ष्यात्मक मूल्य

Kaushal Rao v. State of Bombay में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मृत्युलेख अपने आप में एक पूर्ण साक्ष्य (Substantive Evidence) है। ऐसा कोई पूर्ण नियम नहीं है कि मृत्युलेख के आधार पर तब तक दोषसिद्धि नहीं हो सकती, जब तक कि उसकी पुष्टि अन्य साक्ष्यों से न हो। प्रत्येक मामले को उसकी परिस्थितियों के आधार पर तय किया जाना चाहिए।

R Mani v. State of Tamil Nadu में कहा गया कि यदि मृत्युलेख सुसंगत, संगत और विश्वसनीय है और स्वेच्छा से दिया गया प्रतीत होता है, तो बिना किसी पुष्टि के भी उसके आधार पर दोषसिद्धि हो सकती है।

मृत्युलेख की विश्वसनीयता जांचने के लिए दिशा-निर्देश (Paniben v. State of Madhya Pradesh):

1. यदि अदालत संतुष्ट है कि मृत्युलेख सच्चा और स्वैच्छिक है, तो वह बिना पुष्टि के उस पर दोषसिद्धि कर सकती है।

2. अदालत को मृत्युलेख का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह किसी दबाव या कल्पना का परिणाम नहीं है।

3. जहां मृत्युलेख संदेहास्पद हो, उसे पुष्टिकारक साक्ष्य के बिना स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

4. एक संक्षिप्त मृत्युलेख को केवल इस आधार पर नहीं खारिज किया जा सकता कि उसमें विस्तार नहीं है। वास्तव में, संक्षिप्तता स्वयं ही सच्चाई की गारंटी हो सकती है।

हालाँकि, केवल मृत्युलेख के आधार पर दोषसिद्धि पूर्णतः सुरक्षित नहीं मानी जाती क्योंकि इसमें कुछ कमियाँ हो सकती हैं, जैसे कि यह शपथ पर आधारित नहीं होता, इसकी जिरह नहीं हो पाती, और घायल व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से असमंजस की स्थिति में हो सकता है।

एक से अधिक मृत्युलेख

State of M.P. v. Dhirendra Kumar में कहा गया कि यदि दो मृत्युलेख अलग-अलग बयान देते हैं, तो उनकी सच्चाई पर गंभीर संदेह पैदा होता है।

Kashmira Devi v. State of Uttrakhand में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक से अधिक मृत्युलेख होने की स्थिति में, प्रत्येक को उसके साक्ष्यात्मक मूल्य के आधार पर स्वतंत्र रूप से देखा जाना चाहिए। अदालत को यह सुनिश्चित करना होगा कि कौन सा कथन वास्तविक स्थिति को दर्शाता है।

मृत्युलेख दर्ज करने का तरीका

अधिनियम में यह निर्धारित नहीं है कि मृत्युलेख किसके द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए। इसे कोई भी व्यक्ति - पुलिस अधिकारी, डॉक्टर, मजिस्ट्रेट या कोई अन्य - दर्ज कर सकता है। हालाँकि, इसका साक्ष्यात्मक मूल्य इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे किसने दर्ज किया है।

 एक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज मृत्युलेख को सबसे अधिक विश्वसनीय माना जाता है क्योंकि वह एक तटस्थ व्यक्ति होता है।

 यदि मृत्युलेख एक पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया है, तो जब तक अभियोजन यह संतुष्टि न दे कि इसे मजिस्ट्रेट या डॉक्टर द्वारा क्यों नहीं दर्ज कराया गया, तब तक ऐसे बयान पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।

मृत्युलेख दर्ज करते समय ध्यान रखने योग्य बातें:

1. इसे दर्ज करने का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए जाने पर प्रश्न-उत्तर का प्रारूप बेहतर होता है।

2. मृत्युलेख को मृतक के ठीक शब्दों में और उसकी भाषा में दर्ज किया जाना चाहिए।

3. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि घायल व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ था और प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम था।

4. डॉक्टर द्वारा यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक है कि मृतक ने बयान देते समय होश में था।

धारा 26 के अन्य महत्वपूर्ण उपबंध

व्यवसाय के सामान्य क्रम में दिया गया कथन [धारा 26(ख)]

यह धारा उन कथनों को प्रासंगिक ठहराती है जो किसी व्यक्ति द्वारा व्यवसाय के सामान्य क्रम में दिए गए हों। उदाहरण: किसी मृत डॉक्टर की डायरी में, जो उसने अपने व्यवसाय के सामान्य क्रम में भरी हो, किसी दिए गए दिन किसी बच्चे के जन्म का जिक्र होना एक प्रासंगिक तथ्य है।

कथन करने वाले के हित के विरुद्ध कथन [धारा 26(ग)]

जब कोई कथन कथनकर्ता की संपत्ति या आर्थिक हित के विरुद्ध हो, या जो सिद्ध होने पर उसे दोषी ठहरा सकता हो, तो वह प्रासंगिक है। उदाहरण: एक हिंदू विधवा द्वारा किसी के पक्ष में की गई वारिसनामा की घोषणा।

सार्वजनिक अधिकार या रीति-रिवाज से संबंधित कथन [धारा 26(घ)]

सार्वजनिक अधिकार, रीति-रिवाज या सामान्य हित के मामलों से संबंधित कथन प्रासंगिक हैं, यदि वे किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए हों जो उसके अस्तित्व से अवगत हो, बशर्ते कि ऐसा कथन उस अधिकार या रीति-रिवाज पर विवाद होने से पहले दिया गया हो।

दो व्यक्तियों के बीच संबंध के अस्तित्व से संबंधित कथन [धारा 26(ङ)]

रक्त संबंध, विवाह या दत्तक ग्रहण से संबंधित कथन प्रासंगिक हैं, यदि वे किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए हों जिसके पास ऐसे संबंध का विशेष ज्ञान हो, और यह कथन विवाद शुरू होने से पहले दिया गया हो।

धारा 26(ङ) और 26(च) में अंतर

1.  उपधारा (ङ) जीवित और मृत दोनों व्यक्तियों पर लागू होती है, जबकि उपधारा (च) केवल मृत व्यक्तियों पर लागू होती है।

2.  उपधारा (ङ) में कथनकर्ता के पास विशेष ज्ञान होना आवश्यक है, जबकि उपधारा (च) में ऐसी कोई शर्त नहीं है।

3.  उपधारा (ङ) में कथन मौखिक या लिखित हो सकता है, जबकि उपधारा (च) में कथन लिखित होना चाहिए।

कई व्यक्तियों द्वारा व्यक्त भावनाएं [धारा 26(ज)]

इसके अनुसार, कई व्यक्तियों द्वारा विवादित मामले से संबंधित अपनी भावनाओं या प्रभाव को व्यक्त करने वाले कथन प्रासंगिक हैं। उदाहरण: किसी दुकान की खिड़की पर लगे किसी कार्टून के समानता और मानहानिकारक चरित्र के बारे में दर्शकों की भीड़ की टिप्पणियाँ साबित की जा सकती हैं।

निष्कर्ष: धारा 26 साक्ष्य कानून का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है जो न्यायालय को उन सूचनाओं तक पहुंचने में सक्षम बनाती है, जो अन्यथा साक्षी की अनुपस्थिति में दब जातीं। मृत्युलेख, इसका सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हिस्सा, न्याय सुनिश्चित करने में एक निर्णायक भूमिका निभाता है। हालाँकि, इसके उपयोग में सावधानी की आवश्यकता होती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्दोष दोषी न ठहराया जाए और दोषी को सजा मिले।

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